http://journal.ignouonline.ac.in/index.php/jjis/issue/feed जम्बूद्वीप - the e-Journal of Indic Studies (ISSN: 2583-6331) 2023-11-15T08:55:35+00:00 Prof. Kaushal Panwar ejournalsanskrit@ignou.ac.in Open Journal Systems <p><span style="font-weight: 400;"><strong>e-journal, जम्बूद्वीप - the e-Journal of Indic Studies (ISSN: 2583-6331) is covered:</strong> Darshan, Ved, Vyakaran, Bhasha Vigyan, Sahitya, Sanskrit mein Vigyan, Ayurved, Yog, Ancient Indian Psychology, employment opportunities in Sanskrit Language, and all the aspects of Indian Knowledge System. The special issues will also be placed. The paper will be invited in three languages – Sanskrit, Hindi and English.</span></p> http://journal.ignouonline.ac.in/index.php/jjis/article/view/1189 अग्नि: प्रथमो देवता 2023-08-14T08:12:53+00:00 Monika Verma drmonika17@gmail.com <p>&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; वेद वैश्विकचेतना के सर्वोच्चस्तर का चरम निदर्षन है। रजोगुण और तमोगुण से विनिर्मक्त ऋषियों ने अपने दिव्य अन्तःकरण में सात्विकधियामात्र से अनुभूत ज्ञान को ऋचाओं के रूप में निबद्ध किया। ये ऋचाएं &nbsp;अग्नि, इन्द्र, अश्विनी कुमार,वरुण, विष्णु, रुद्र ब्रह्मणस्पति,उषा, सविता,सूर्य,सोम,मित्र,भग,अर्यमा,ऋभु,सोम आदि देवताओं की स्तुति का परमसाधन है। इन स्तुतियों के प्रतिदान में ऋषियों द्वारा गौ, अश्व, वाज, शत्रुविजय एवं प्रभूत सन्तति की याचना करते हुए देवताओं के स्वरूप एवं कर्मों का अत्यन्त अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है और यही मन्त्रों की संक्षिप्तविषयवस्तु है।</p> <p>&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp; इस सम्बन्ध में सहज ही जिज्ञासा होती है कि वे ऋषि जो प्रकृतिस्थ कहे गये हैं तथा जिनमें लेशमात्र भी रज और तम नहीं है ,जिनके वचन मुक्तकण्ठ से अपौरुषेय एवं ईष्वावाक् वेद के रूप में आदृत हैं क्या ये वही वेद है जिसमें सामान्य मनुष्यों की ईष्र्या, लोभ, लालच,मोह मत्सरता जैसे भाव कविता में व्यक्त हुए हैं। क्या ये ऋषि हमारे जैसे ही तुच्छ मनोवृत्ति वाले मनुष्य थे। ऐसी ही जिज्ञासा समय-समय पर उत्थित हुई है। इसके प्रमाण के रूप में यास्ककृत निरुक्त में प्राप्त होता है जहां यास्क वैदिक ऋचाओं के त्रिविध अर्थ की ओर संकेत करतें है - <strong>तास्त्रिविधा ऋचः। परोक्षकृताः। प्रत्यक्षकृताः। आध्यात्मिक्यष्च।</strong> अर्थात् ऋचाएं तीन प्रकार की होती है-<strong>परोक्ष</strong><strong>, प्रत्यक्ष एवं आध्यात्मिक</strong>। यदि इस विचार को आधार बनाकर अध्ययन किया जाये तो वेदों में निगूढ तत्त्व का प्रकाशन संभव है। इसी आधार पर मैंने अग्नि सूक्त 1.31 के विश्लेषण का प्रयास किया है।</p> 2023-10-26T00:00:00+00:00 Copyright (c) 2023 जम्बूद्वीप - the e-Journal of Indic Studies (ISSN: 2583-6331) http://journal.ignouonline.ac.in/index.php/jjis/article/view/1174 ‘धराकम्पते’ काव्य में वर्णित समस्याएँ-एक विवेचन 2023-08-03T15:26:45+00:00 Lajja Bhatt lajjabhatt.dsb@gmail.com <p>वर्तमान सदी में तकनीकी तथा विज्ञान के उच्च प्रयोग द्वारा भौतिक विकास तथा उन्नति होने के साथ-साथ ही विविध प्रकार की समस्याओं का भी जन्म हुआ है।इस समस्याओं के निस्तारण हेतु समाज के प्रत्येक नागरिक को अवश्य प्रयत्न करना चाहिए तभी इन समस्याओं का कुछ हल निकल सकता है। प्राचीन काल से ही अनेक विद्वानों ने संस्कृत भाषा को अपनी लेखनी का विषय बनाते हुए संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया है। उत्तम काव्य रचना का कार्य मात्र मनोरंजन करना ही नहीं होता अपितु वह कान्तासम्मितउपदेश के द्वारा जन-जागरूकता का प्रसार भी करती है।</p> 2023-10-26T00:00:00+00:00 Copyright (c) 2023 जम्बूद्वीप - the e-Journal of Indic Studies (ISSN: 2583-6331) http://journal.ignouonline.ac.in/index.php/jjis/article/view/1345 ‘बौद्धन्यायानुसारं प्रमेयानां वैशिष्ट्यम्’ 2023-10-25T07:59:29+00:00 Dr. Krishna Kumari krishnaboris12@gmail.com <p>सर्वेषामपि बुद्धोपदेशानां द्विविधं लक्ष्यम्। एकतस्ते समारोपापवादविनिर्मुक्तं शान्तं शिवं वस्तुतत्त्वं निर्दिशन्ति, अपरतश्च मानवानां जीवने जगति च विद्यमानानां विविधानां दुःखफलानां समस्यानां यन्मूलं वस्तुस्वरूपाज्ञानं तन्निराकरणे तेषां प्रयासः। भगवता बुद्धेन सर्वजनहितकारकं यद्धि तत्त्वज्ञानमाविष्कृतम्, तत् सर्वजनसामान्यं विधातुं तदनुयायिषु भिक्षुषु महान् उत्साहः, बलवती च प्रेरणा आसीत्। एषा लक्ष्यप्राप्तिः हेतुविद्यासमाश्रयेणैव सुशका। फलतश्च बौद्धेषु तस्या विद्यायाः समधिकं महत्त्वं परिलक्ष्यते। तेषु एतस्य सर्वस्य हेतुविद्याप्रवणस्य समारम्भजातस्य भगवान् बुद्ध एव प्रेरणास्रोतः। तेन भगवता स्वयमेव विरोधिमन्तव्यानि निराकुर्वता समसामयिकास्तैर्थिकाचार्यास्तर्कबहुलेन वादकौशलेन निगृहीताः, स्वानुयायिनश्च सम्प्रेरिताः। धर्मचक्रप्रवर्तनसूत्रं च समुपदिशता भगवता आर्याष्टाङ्गिकमार्गे इदम्प्रथमतया सम्यग्दृष्टये यत् स्थानं निर्दिष्टम्, तस्यापि इदमेव स्वारस्यम्। सम्यग्दृष्टिर्हि सम्यग्ज्ञानम्। सम्यग्ज्ञानमेव च बौद्धानां प्रमाणलक्षणमिति। तद् द्विविधं प्रत्यक्षमनुमानञ्चेति।</p> 2023-10-26T00:00:00+00:00 Copyright (c) 2023 जम्बूद्वीप - the e-Journal of Indic Studies (ISSN: 2583-6331) http://journal.ignouonline.ac.in/index.php/jjis/article/view/1077 अथर्ववेद में विश्वबंधुत्व 2023-06-01T07:32:14+00:00 Dr. Kamlesh Rani kamalbattra@gmail.com <p>जिस प्रकार समग्र वैदिक वाङ्मय में सर्वत्र विश्वबन्धुत्व का वर्णन प्राप्त होता है, उसी प्रकार अथर्ववेद में भी विश्वबंधुत्व के वर्णन सर्वत्र दर्शनीय हैं l विश्वबन्धुत्व की भावना के लिए जैसे यजुर्वेद के 32वें अध्याय के अष्टम मन्त्र में कहा गया है- <strong>वेनस्तत्पश्यन्नि</strong><strong>हित</strong><strong>ं गुहा सत् l यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् ll </strong>अर्थात् ज्ञानी मनुष्य उस ब्रह्म को गुप्त स्थान में अथवा बुद्धि में अवस्थित तथा त्रिकालबाधित-नित्य है, ऐसा देखता है। वैसे ही अथर्ववेद के द्वितीय काण्ड के प्रथम मन्त्र में कहा गया है- <strong>वेनस्तत्पश्यत्परमं गुहा यद्यत्र विश्वं भवत्येकरूपम् ll</strong> अर्थात् भक्त ही उस परमश्रेष्ठ परमात्मा को देखता है, जो हृदय की गुफा में है और जिसमें सम्पूर्ण जगत् एक रूप हो जाता है। कहने का भाव यह है कि प्रत्येक भक्त अथवा ज्ञानी मनुष्य समग्र विश्व के लोगों में आत्मभाव को देखता है। इस प्रकार न कोई धर्म, न कोई पन्थ, न कोई सम्प्रदाय और न तो कोई देश उस परम तत्त्व से अलग है अपितु सब एक है । सब एक सूत्र में माला की तरह पिरोंएँ गये हैं । अतः इससे बड़ा और विश्वबन्धुत्व क्या हो सकता है? जैसा कि ऋग्वेद में कहा गया है- <strong>ए</strong><strong>कं</strong><strong> सद् विप्रा बहुधा वद</strong><strong>न्ति</strong><strong> ॥</strong> अर्थात् सत् एक ही है परन्तु विद्वान् लोग उसको विविध रूपों में कहते हैं किंवा बतलाते हैं l अथर्ववेद के उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त में कहा गया है-</p> <p> </p> 2023-10-26T00:00:00+00:00 Copyright (c) 2023 जम्बूद्वीप - the e-Journal of Indic Studies (ISSN: 2583-6331) http://journal.ignouonline.ac.in/index.php/jjis/article/view/1347 ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति 2023-10-25T09:28:55+00:00 Dr. Mukesh Kumar Mishra mukeshsnk@gmail.com <p>ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति कहाँ और कब हुई? - यह एक ऐसा विषय है, जो आज भी पुरातत्त्ववेत्ताओं, इतिहासकारों व विद्वद्समाज के मध्य पर्याप्त चर्चा का विषय रहा है। प्राच्य एवं प्रतीच्य दोनों ही विद्वानों ने अपनी-अपनी दृष्टियों से इसका निराकरण करने का प्रयास किया। औपनिवेशिक सत्ता व मानसिकता से प्रभावित प्रायः प्रतीच्य विद्वानों ने ब्राह्मी की उत्पत्ति के विषय में विदेशी उद्भव के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर उसे स्वीकार किया है। किन्तु कुछ ऐसे प्रतीच्य विद्वान् भी थे जिन्होंने नीरक्षीरविवेक से ब्राह्मी की उत्पत्ति के विषय में विचार किया है। साथ ही भारतीय पुरातत्त्ववेत्ताओं एवं प्राच्य आचार्यों ने भी इस विषय का सूक्ष्म व गहन रूप में चिन्तन, मनन, मन्थन एवं अवलोकन किया तथा वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ब्राह्मी की उत्पत्ति के विषय में भारतीय या स्वदेशी उद्भव का सिद्धान्त ही सर्वथा समीचीन है। प्रस्तुत शोधलेख के माध्यम से ब्राह्मी के विषय में विदेशी एवं स्वदेशी उद्भव के सिद्धान्त का पर्याप्त आलोड़न, अन्वेषण एवं सूक्ष्म परीक्षण कर इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया है कि ब्राह्मीविषयक स्वदेशी उद्भव के सिद्धान्त का प्रतिपादन करनेवाले आचार्यों का मत ही सर्वमान्य एवं सर्वस्वीकार्य है।</p> 2023-10-26T00:00:00+00:00 Copyright (c) 2023 जम्बूद्वीप - the e-Journal of Indic Studies (ISSN: 2583-6331) http://journal.ignouonline.ac.in/index.php/jjis/article/view/1346 आचार्य रेवाप्रसाद द्विवेदी का काव्य शास्त्रीय अवदान 2023-10-25T09:18:44+00:00 Dr. Devesh Kumar Mishra dkmishra@ignou.ac.in <p>संस्‍कृत भाषा का काव्‍यशास्‍त्र एक विशालतम काव्‍यशास्‍त्र है। वैदिक एवं लौकिक साहित्‍य के सन्धिकाल की वेला से ही संस्‍कृत काव्‍य जगत का परम्‍परा के रूप में प्रारम्‍भ है। वेदों में कविता के बीज और इसके नियमन करने वाले शास्‍त्रीय तत्‍व पाये जाते हैं। किन्‍तु शास्‍त्र की परम्‍परा के रूप में काव्‍य के शरीर के निर्माण और उसके आत्‍मतत्‍व का विचार आचार्य भरत से आरम्‍भ है। पण्डितराज जगन्‍नाथ के समय तक काव्‍यशास्‍त्र की परम्‍परा सम्‍प्रदाय के रूप में प्राप्‍त हुई। छ: सम्‍प्रदायों में विस्‍तृत संस्‍कृत काव्‍यशास्‍त्र के सिद्धान्‍त पक्ष पर विचार करते हुए 21वीं शताब्‍दी में आचार्य रेवाप्रसाद द्विवेदी ने नवीन प्रस्‍थापना करने का प्रयास किया। जिसमें अलंकार को काव्‍य के लक्षण में आत्‍मतत्‍व के रूप में अलंब्रह्मवाद द्वारा स्‍थापित किया। काव्‍य के कारणों पर विचार करते हुए केवल प्रतिभा को ही काव्‍य का कारण माना। काव्‍यप्रयोजनों के लिए विचार करते समय आचार्य द्विवेदी ने तीन प्रकार के अभिनव प्रयोजनों का तार्किक रूप से वर्णन किया। इस प्रकार काव्‍य के शरीर और आत्‍मा के विचार की परम्‍परा में आचार्य रेवाप्रसाद द्विवेदी का महत्‍वपूर्ण योगदान प्रतीत होता है।</p> 2023-10-26T00:00:00+00:00 Copyright (c) 2023 जम्बूद्वीप - the e-Journal of Indic Studies (ISSN: 2583-6331) http://journal.ignouonline.ac.in/index.php/jjis/article/view/1188 वेदोपदिष्टमन्तरिक्षविज्ञानम् 2023-08-14T07:54:09+00:00 Amit Kumar Sahoo sahoorkmvu@gmail.com <p>अखिलविश्वप्रपञ्चस्य प्राचीनेषु वाङ्मयेषु विशिष्टस्थानं भजते वेदः। भारतीयार्षपरम्परायाम् ऋषीणां योगदानमत्यद्भूतम्। ते च साक्षात्कृतधर्माणः ऋषयः ऋतम्भरया प्रज्ञया अन्तःकरणे सृष्टिविषयकस्य ज्ञानविज्ञानस्य उपलम्भेन महतः ज्ञानराशेः आविष्कारं चक्रुः। तस्यैव ज्ञानस्याभिव्यक्तिः वेदरूपेण बभूव। अस्मिन् प्रबन्धे बयं अन्तरिक्षविज्ञानविषये चर्चयिष्यामः। प्रकृते अस्माकमभिप्राय ऋषिभिः अन्तरिक्षविषयकवैज्ञानिकचिन्तनेन सार्धं विद्यते। वेदेषु अन्तरिक्षविषये ये विचाराः उपस्थापिताः किं ते ऋषिकल्पनात्मिका उत विज्ञानतत्त्वोपेताः ? इति चेत् यद्यपि तत्रत्याः विचाराः बाह्यतः कथात्मिकाः दृश्यन्ते परन्तु अन्ततो गभीराध्ययनेन ज्ञायते ते तत्त्वोपेता एव इति। वेदेषु ब्रह्माण्डस्य निर्मातारः शक्तयः तत्वानि वा देवनाम्ना आख्यतानि। सामान्यतः एतानि तत्त्वानि सर्वेषु लोकेषु व्याप्तानि, परन्तु विशेषरूपेण केषुचित् लोकेष्वेव मुख्यतां दरीदृश्यते। वस्तुतः पृथिवीद्यावान्तरिक्षाख्याः त्रय एव लोका मुख्यतां भजन्ते। अतो भगवान् यास्कः पृथिवी-द्यौ-अन्तरिक्षमित्येतान् त्रीन् लोकानाश्रित्य त्रिषु स्थलेषु देवतानां स्थानं निर्दिदेश। संहितासु विद्यमानेषु मन्त्रेषु यस्य संकेतः प्राप्यते तस्य विश्लेषणं ब्राह्मणग्रन्थेषु प्राप्नुमः। अन्तरिक्षस्थानीय देवानां विवेचनेन अन्तरिक्षविज्ञानविषयकानां नाना शाखानामपि ज्ञानं प्राप्तुम् अर्हामः। अस्यां दिशि वैज्ञानिकाध्ययनस्य आवश्यकता विद्यते। अन्तरिक्षविज्ञानान्तर्भूतस्य दिग्विज्ञानस्य, जलविज्ञानस्य, गतिविज्ञानस्य, विद्युद्विज्ञानस्य, रसविज्ञानस्य, वायुविज्ञानस्य च महत्वं सर्वान् अतिशेते।</p> 2023-10-26T00:00:00+00:00 Copyright (c) 2023 जम्बूद्वीप - the e-Journal of Indic Studies (ISSN: 2583-6331) http://journal.ignouonline.ac.in/index.php/jjis/article/view/1154 अर्वाचीनवैयाकरणजयदेवमिश्रविरचितशास्त्रार्थरत्नावल्यां सावर्ण्यचिन्तनम् 2023-07-24T14:40:07+00:00 Uttam Ghosh Uttam Ghosh uttamghoshvedvid@gmail.com <p> चतुःपञ्चाशदधिकाष्टादशशततमे ईशाब्दे मिथिलायां चित्रनाथशचीदेव्योः क्रोडमलङ्कृत्य समजनि अयं जयदेवमिश्रः। काश्यां बालशास्त्रिणः विशुद्धानन्दसरस्वतेः कैलासचन्द्रशिरोमणेश्च व्याकरणं नव्यन्यायं वेदान्तञ्चाधीतवन्तोऽयं विद्वद्वरेण्यः। काशीस्थितदरभङ्गापाठशालायां प्रायेण चत्वारिंशद् वर्षाणि अध्याप्य तदनु पण्डितमदनमोहनमालवीयानुरोधमूररीकृत्य जीवनान्तं यावद् काशीहिन्दुविश्वविद्यालये शतशः छात्रान् अपाठयन् इमे विद्वांसः। तत्कृतिषु परिभाषेन्दुशेखरस्य विजया व्युत्पत्तिवादस्य च जया टीका आभारतं देदीप्यमाना राराजते। पाणिनीयसूत्राणां तथा परिभाषाणामुपरि तदीयग्रन्थः शास्त्रार्थरत्नावली अर्वाचीनशास्त्रार्थपरम्परायाश्चरमनिदर्शनत्वेन मूर्धन्यस्थानमारुह्य स्थितः। ऊनविंशत्यधिकोनविंशति-शततमे ईशाब्दे ब्रिटिशसर्वकारात् महामहोपाध्याय इत्युपाधिना सम्भूषिता इमे गुरुवर्याः। तन्माहात्म्यं ध्वनयता गङ्गानाथझामहोदयेन समुदघोषि- </p> 2023-10-26T00:00:00+00:00 Copyright (c) 2023 जम्बूद्वीप - the e-Journal of Indic Studies (ISSN: 2583-6331) http://journal.ignouonline.ac.in/index.php/jjis/article/view/1171 भाट्टसिद्धान्तानुसारं धर्मजिज्ञासाधिकरणविमर्शः 2023-08-02T11:44:19+00:00 Chandan Mukherjee chandanmukherjee711@gmail.com <p style="text-align: justify;">वैदिककर्मकाण्डरूपेण वाक्यशास्त्ररूपेण च नैकासां समस्यानां समाधानायेदं मीमांसाशास्त्रं न केवलं दार्शनिकसाहित्यायापि तु व्याकरणधर्मशास्त्रादीनाम् अध्ययनाय अपि अत्यन्तमेवोपादेयं वर्तते। कुमारिलभट्टमतानुसारं - "मीमांसाख्या तु विधेयं बहुविद्यान्तराश्रिता" (सर्वदर्शनसंग्रहः, जैमिनिदर्शनम्) इति। अस्य शास्त्रस्य प्रतिपाद्यविषयत्वेन धर्मजिज्ञासा एव तत्र मुख्यो विषयः। उच्यते लौगाक्षिभास्करेण - "अथ परमकारुणिको भगवान् जैमिनिर्धर्मविवेकाय द्वादशलक्षणीं प्रणिनाय" (अर्थसंग्रहः प्रथमं वाक्यम्)&nbsp; इति। अत्र लक्षणशब्दः अध्यायवाचकः। ननु धर्मानुष्ठानवशादेव अभिमतधर्मसिद्धिः इति वारं वारं प्रतिपाद्यते धर्मशास्त्रेषु। तर्हि धर्मः नाम कः इति जिज्ञासा उदेति। तत्र लौगाक्षिभास्करो वदति - "यागादिरेव धर्मः” अर्थसंग्रहः (पृ.११)&nbsp; इति। तस्य लक्षणं चोक्तं - "वेदप्रतिपाद्यः प्रयोजनवदर्थो धर्मः" अर्थसंग्रहः (पृ.११)&nbsp; इति। वेदप्रतिपाद्यत्वे सति प्रयोजनवत्त्वे च सति अर्थत्वं धर्मस्य लक्षणम्। धर्मः यागः वेदेन प्रतिपाद्यते। "अथातो धर्मजिज्ञासा" द्वादशलक्षणी (१/१/१) इति सूत्रेण आरभ्यते द्वादशलक्षण्यां&nbsp; जिज्ञासाधिकरणम्। अधिकरणस्य पञ्चाङ्गानि तावत् - विषयः, संशयः, पूर्वपक्षः, सिद्धान्तः, सङ्गतिश्चेति। जिज्ञासाधिकरणे अपि आचार्यैः कुमारिलभट्टपादैः पञ्च अङ्गानि विवेचितानि। मीमांसाशास्त्रं न आरम्भणीयमिति पूर्वपक्षः। अध्ययनविधेः अर्थावबोधलक्षणत्वात् अदृष्टफलकत्वानुपपत्तेः। अर्थावबोधार्थम् अध्ययनविधिः इति चेत् किम् अत्यन्तम् अप्राप्तम् अध्ययनं विधीयते किं वा पाक्षिकम् अवघातवत् नियम्यते इति। सिद्धान्ते अध्ययनविधौ नियमविधिः अस्ति एव। अतः विचारशास्त्रम् आरम्भणीयम् इति सिद्धान्तः। मन्त्राणां कश्चन अर्थः भवतीति न मीमांसकाः स्वीकुर्वन्ति, किन्तु एषां विधिषु विनियोगात् भवति सार्थकता। अत्रैव अर्थवादवाक्यानि अपि सन्ति। अर्थवादवाक्यैः साक्षात् विधानं न क्रियते। यथा विविधाः आख्यायिकाः वेदेषु सन्ति तासामाख्यायिकानामुपयोगः साक्षाद्विधाने नास्ति परन्तु परम्परया तु तत्रैव तासामुपयोगो भवति। एवं धर्मविचारशास्त्रमिदं वेदवाक्यार्थविचारे अतीव महत् स्थानं लभते इति शम्।</p> 2023-10-26T00:00:00+00:00 Copyright (c) 2023 जम्बूद्वीप - the e-Journal of Indic Studies (ISSN: 2583-6331) http://journal.ignouonline.ac.in/index.php/jjis/article/view/1193 चम्पूकाव्यः परिभाषा एवं स्वरूप 2023-08-15T12:35:03+00:00 Rajendra Prasad Mishra rajendram423@gmail.com <p>गद्य-पद्यमयी रचना वैदिक काल से ही होती रही है। संहिताएं, ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद्, महाभारत, विष्णुपुराण और भागवत पुराण, जातककथा, शिलालेख आदि सबमें इस शैली के दर्शन होते हैं। तथापि ऐसी मिश्र रचना, जिसे सर्वांग चम्पूकाव्य कहा जा सके, दसवीं ई. शती से पूर्व उपलब्ध नहीं होती है।</p> 2023-10-26T00:00:00+00:00 Copyright (c) 2023 जम्बूद्वीप - the e-Journal of Indic Studies (ISSN: 2583-6331) http://journal.ignouonline.ac.in/index.php/jjis/article/view/1384 E-Jambudeep (full magzine) October, 2023 issue. 2023-11-15T08:55:35+00:00 Prof. Kaushal Panwar ejournalsanskrit@ignou.ac.in <p>E-Jambudeep (Full Magzine) October, 2023 issue.</p> 2023-11-15T00:00:00+00:00 Copyright (c) 2023 जम्बूद्वीप - the e-Journal of Indic Studies (ISSN: 2583-6331)