वैदिक साहित्य में सामाजिक सौहार्द
सार
वेद विश्वभाषा के सर्वप्राचीन ग्रन्थ है । इस तथ्य को प्राच्य और पाश्चात्य विद्वान् लगभग एकमत होकर स्वीकार करते हैं। वैदिक वाङ्मय में वैश्विक एकता और अखण्डता की बातें पदे-पदे कहीं गयी हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद इन पाँचों वर्णों के हितचिन्तक राष्ट्रनायक को ऋग्वेद में पाञ्चजन्य कहा गया है l इन सब में समाज में पारस्परिक सौहार्द स्थापित था।
वैदिक साहित्य में सब को समान अधिकार एवं सम्मान प्रदान किया गया है । वहां न तो छोटा है न कोई बडा । ऋग्वेद में मरुतों के प्रसंग में यह बात कही गई है –
अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय ।
युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुधा पृश्नि: सुदिना मरुद्भयः ॥ अर्थात छोटे बड़े सब में भाईचारे की भावना थी। सब एक दूसरे का सम्मान करते थे। घर -परिवार के अन्दर माता पिता, भाई बहन सब में पारस्परिक सद्भाव को वैदिक साहित्य में सर्वत्र देखा जा सकता है।