शुक्रनीति में वर्णित पर्यावरण संरक्षण
सार
भारतीय नीतिशास्त्र के इतिहास में शुक्राचार्य का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। आचार्य शुक्र अपने युग के एक महान् ऋषि तथा नीतिज्ञ थे। प्राचीनग्रन्थों में भी शुक्राचार्य की नीति की अत्यन्त प्रशंसा की गई है। शुक्रनीति राजनीति का प्रख्यापक ग्रन्थ है। जिसके अध्ययन से तत्कालीन भारतीय समाज, उसके चिन्तन तथा प्रकृति पर प्रकाश पड़ता है। संस्कृत भाषा निबद्ध ग्रन्थों में प्रकृति के संरक्षण को मानव के नैतिक कर्तव्य के रूप में स्वीकार किया गया है। वेदों से लेकर अद्यावधि हमारे ऋषिमुनियों, मनीषियों, पर्यावरणविदों आदि द्वारा रचित नीतिग्रन्थों तथा अन्य समस्त कृतियों में मानव के लिए विधि तथा निषेध की चर्चा कर मनुष्य को एक उचित मार्ग प्रदान करने का कार्य किया गया है। आज मानव जाति के समक्ष अत्यन्त गम्भीर चुनौती है कि वह प्रकृति के श्रृंगारस्वरूप वृक्षों का संवर्धन किस प्रकार करे। इस स्थिति में मानवजीवन के समस्त पक्षों का आमूलचूल उद्घाटन करने वाले संस्कृत साहित्य की नीति परम्परा में आचार्य शुक्र विरचित शुक्रनीति में वन तथा वनस्पतियों के संरक्षण को राजकीय दायित्व बताकर निरन्तर ऋतुओं के अनुसार वृक्ष लगाने की विस्तार से चर्चा की गई है।
शुक्रनीतिकार के द्वारा वृक्षों के विविध प्रकार का विवेचन करने का उद्देश्य यही प्रतीत होता है कि हम प्रकृति-प्रेमी बनें। वर्तमान में जिस पर्यावरण असन्तुलन की समस्या से सम्पूर्ण विश्व दुष्प्रभावित हो रहा है उसके समाधान हेतु हमारे पूर्वजों द्वारा प्रत्येक प्राणिवर्ग के कल्याण की भावना से रचे गये नीतिविषयक ज्ञान द्वारा निश्चित ही लाभान्वित हुआ जा सकता है।