अथर्ववेद में विश्वबंधुत्व

Authors

  • Dr. Kamlesh Rani Kamala Nehru College, University of Delhi

Abstract

जिस प्रकार समग्र वैदिक वाङ्मय में सर्वत्र विश्वबन्धुत्व का वर्णन प्राप्त होता है, उसी प्रकार अथर्ववेद में भी विश्वबंधुत्व के वर्णन सर्वत्र दर्शनीय हैं l विश्वबन्धुत्व की भावना के लिए जैसे यजुर्वेद के 32वें अध्याय के अष्टम मन्त्र में कहा गया है- वेनस्तत्पश्यन्निहितं गुहा सत् l यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् ll अर्थात् ज्ञानी मनुष्य उस ब्रह्म को गुप्त स्थान में अथवा बुद्धि में अवस्थित तथा त्रिकालबाधित-नित्य है, ऐसा देखता है। वैसे ही अथर्ववेद के द्वितीय काण्ड के प्रथम मन्त्र में कहा गया है- वेनस्तत्पश्यत्परमं गुहा यद्यत्र विश्वं भवत्येकरूपम् ll अर्थात् भक्त ही उस परमश्रेष्ठ परमात्मा को देखता है, जो हृदय की गुफा में है और जिसमें सम्पूर्ण जगत् एक रूप हो जाता है। कहने का भाव यह है कि प्रत्येक भक्त अथवा ज्ञानी मनुष्य समग्र विश्व के लोगों में आत्मभाव को देखता है। इस प्रकार न कोई धर्म, न कोई पन्थ, न कोई सम्प्रदाय और न तो कोई देश उस परम तत्त्व से अलग है अपितु सब एक है । सब एक सूत्र में माला की तरह पिरोंएँ गये हैं । अतः इससे बड़ा और विश्वबन्धुत्व क्या हो सकता है? जैसा कि ऋग्वेद में कहा गया है- कं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति अर्थात् सत् एक ही है परन्तु विद्वान् लोग उसको विविध रूपों में कहते हैं किंवा बतलाते हैं l अथर्ववेद के उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त में कहा गया है-

 

Published

2023-10-26

How to Cite

Dr. Kamlesh Rani. (2023). अथर्ववेद में विश्वबंधुत्व. जम्बूद्वीप - the E-Journal of Indic Studies (ISSN: 2583-6331), 2(2). Retrieved from http://journal.ignouonline.ac.in/index.php/jjis/article/view/1077