व्याकरणदर्शन की परम्परा एवं मण्डनमिश्र
Abstract
संस्कृतव्याकरण एवं व्याकरणदर्शन का क्षेत्र अतीव प्राचीन, विशद एवं दार्शनिक चिन्तन से समन्वित है। नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात, क्रिया, लिङ्ग, वचन, विभक्ति आदि मूलतत्त्वों पर प्राचीनकाल से ही तत्त्वचिन्तन आरम्भ हो चुका था। यास्क ने पूर्वाचार्यमतों सहित उपसर्ग एवं नामशब्द का निरुक्त में विवेचन किया, जबकि स्फोटायन एवं औदुम्बरायण को शब्ददर्शन के आदिप्रवर्तक आचार्य माने जाते हैं। कात्यायन एवं पतञ्जलि ने पाणिनीय व्याकरण को दार्शनिक अधिष्ठान प्रदान किया। तदनन्तर भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के माध्यम से व्याकरणदर्शन की विविध जिज्ञासाओं एवं सिद्धान्तों का गम्भीर निरूपण किया। वृषभदेव, पुण्यराज, हेलाराज, धर्मपाल, नागेशभट्ट आदि की टीकापरम्परा इस परम्परा को समृद्ध करती है।