अथर्ववेद में विश्वबन्धुत्व
सार
अथर्ववेद में विश्वबंधुत्व
जिस प्रकार समग्र वैदिक वाङ्मय में सर्वत्र विश्वबन्धुत्व का वर्णन प्राप्त होता है, उसी प्रकार अथर्ववेद में भी विश्वबंधुत्व के वर्णन सर्वत्र दर्शनीय हैं l विश्वबन्धुत्व की भावना के लिए जैसे यजुर्वेद के 32वें अध्याय के अष्टम मन्त्र में कहा गया है- वेनस्तत्पश्यन्निहितं गुहा सत् l यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् ll अर्थात् ज्ञानी मनुष्य उस ब्रह्म को गुप्त स्थान में अथवा बुद्धि में अवस्थित तथा त्रिकालबाधित-नित्य है, ऐसा देखता है। वैसे ही अथर्ववेद के द्वितीय काण्ड के प्रथम मन्त्र में कहा गया है- वेनस्तत्पश्यत्परमं गुहा यद्यत्र विश्वं भवत्येकरूपम् ll अर्थात् भक्त ही उस परमश्रेष्ठ परमात्मा को देखता है, जो हृदय की गुफा में है और जिसमें सम्पूर्ण जगत् एक रूप हो जाता है। कहने का भाव यह है कि प्रत्येक भक्त अथवा ज्ञानी मनुष्य समग्र विश्व के लोगों में आत्मभाव को देखता है। इस प्रकार न कोई धर्म, न कोई पन्थ, न कोई सम्प्रदाय और न तो कोई देश उस परम तत्व से अलग है अपितु सब एक है । सब एक सूत्र में माला की तरह पिरोंएँ गये हैं । अतः इससे बड़ा और विश्वबन्धुत्व क्या हो सकता है? जैसा कि ऋग्वेद में कहा गया है- एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ॥[1] अर्थात् सत् एक ही है परन्तु विद्वान् लोग उसको विविध रूपों में कहते हैं किंवा बतलाते हैं l अथर्ववेद के उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त में कहा गया है-
उच्छिष्टे नाम रूपं चोच्छिष्टे लोक आहित:।
उच्छिष्ट इन्द्रश्चाग्निश्च विश्वमन्त: समाहितम् ll
उच्छिष्टे द्यावापृथिवी विश्वं भूतं समाहितम्।
आप: समुद्र उच्छिष्टे चन्द्रमा वात: आहित: ll[2]
अर्थात् उच्छिष्ट अर्थात् अवशिष्ट आत्मा में नाम और रूप और उच्छिष्ट में लोक-लोकान्तर स्थित हैं। उच्छिष्ट में इन्द्र और अग्नि तथा उसके अन्दर सम्पूर्ण विश्व समाया हुआ है। उच्छिष्ट में द्युलोक और भूलोक तथा समस्त भूत मात्र अवस्थित हैं । जल, समुद्र, चन्द्रमा, वायु ये सब उसी में अवस्थित हैं । इस प्रकार इन मन्त्रों में भौतिक तथा आध्यात्मिक स्तर के विश्वबन्धुत्व की भावभूमि को ऋषि अथर्वा ने लोक कल्याण के निमित्त प्रस्तुत किया है। इसी सूक्त के 14वें मन्त्र में ऋषि का कथन है-
नव भूमिः समुद्रा उच्छिष्टेऽधि श्रिता दिव: ।
आसूर्यो भाव्युच्छिष्टेऽहोरात्रे अपि तन्मयिं ll[3]
अर्थात् नवभूमि (भरत, किम्पुरुष, भद्र, हरि, हिरण्य, केतुमाल, इलावर्त, कुरु और रम्युक), सब समुद्र और द्युलोक भी उच्छिष्ट में आश्रित है l सूर्य उच्छिष्ट में ही प्रकाशता है, जिससे अहोरात्र होते हैं । यह सब ज्ञान मुझमें रहे। इस प्रकार इस मन्त्र में समग्र भूमण्डल को एक ही बतलाया गया है। अतः इससे बढ़कर विश्वबंधुत्व और क्या हो सकता है? इसी प्रकार का विश्वबंधुत्व अथर्ववेद के सूक्तों में पदे-पदे दृष्टिगोचर होता है l
[1] ऋग्वेद- 1.164.46
[2] अथर्ववेद-काण्ड-11, सूक्त-7, मन्त्र-1-2
[3] अथर्ववेद-काण्ड-11, सूक्त-7, मन्त्र-14